संपादकीय

क्षत्रप संस्कृति की विदाई


राजीव गांधी के समय तक कांग्रेस आलाकमान की खूबी रही थी कि वह राज्यों में एक से ज्यादा नेता बनाकर रखते थे ताकि वे नेता आपस में ही उलझे रहें और अपनी पंचायत के लिए पार्टी आलाकमान पर निर्भर रहें। राजीव गांधी के निधन से पहले पूरे देश में कांग्रेस के गिने-चुने ही सीएम थे जिन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया हो।___ मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष और राष्ट्रीय महासचिव के रूप में कांग्रेस कम से कम तीन क्षत्रप एक राज्य में रखती थी। यह शेर की सवारी की तरह था पर चूंकि केंद्रीय नेतृत्व इतना मजबूत था कि हर क्षत्रप को उसके आगे माथा टेकने की मजबूरी होती थी। याद करें नब्बे के दशक से पहले हर राज्य में कांग्रेस के कितने क्षत्रप थे। उत्तरप्रदेश में नारायण दत्त तिवारी, बीपी सिंह, वीरबहादुर सिंह जैसे कई नेता थे तो बिहार में जगन्नाथ मिश्र, सत्येंद्र नारायण सिंह, भागवत झा आजाद व बिन्देश्वरी जैसे नेता थे। दोनों राज्यों के यह नेता थोड़े-थोड़े समय के लिए मुख्यमंत्री भी रहे थे। ऐसा ही मध्यप्रदेश में भी अर्जुन सिंह, मोतीलाल बोरा, वीसी शुक्ला, माधवराव सिंधिया, दिग्विजय सिंह जैसे कई क्षत्रप थे। नब्बे के दशक में राज्यों में क्षत्रप पैदा करने और उनको पालने-पोसने की संस्कृति कमजोर होने लगी। असल में नरसिंहराव और सोनिया गांधी ने क्षत्रप की संस्कृति खत्म कर दी। हर राज्य में एक-एक ही बड़ा नेता बच गया और बाकी सब उसके अधीन हो गए। आजादी के बाद से कांग्रेस की राजनीति में यह अपवाद था कि कोई नेता मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा करे। लगातार दूसरा कार्यकाल तो संभव ही नहीं था, लेकिन दिग्विजय सिंह इसके पहले अपवाद बने। वे 199 से 2003 तक लगातार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। इसी अवधि में एक राज्य के एक नेता मजबूत होता गया और केंद्र की कमान भी सोनिया गांधी ने एक व्यक्ति को सौंप दी। यह स्थिति करीब दो दशक तक चली है। नब्बे के दशक के मध्य से शुरू करके नई सदी के दूसरे दशक के मध्य तक ऐसे ही हालात रहे, पर अब एक बार फिर स्थिति बदलने लगी है। इस बदलाव के केंद्र में राहुल गांधी का नेतृत्व हैसोनिया गांधी से राहुल गांधी को जब कांग्रेस की सत्ता हस्तांतरित होने लगी तो पार्टी संगठन में भी नए किस्म का बदलाव दिखाई देने लगा। राज्यों में नए क्षत्रप उभरने लगे। उसी बीच कांग्रेस की स्थिति कमजोर होनी शुरू हुई। सन 2014 में कांग्रेस के बुरी तरह से चुनाव हारने और सत्ता से बाहर होने के बाद पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व कमजोर होने लगा। इसका फायदा उठाकर राज्यों में फिर क्षत्रप उभरे और अपने को स्वयंभू नेता के रूप में घोषित कर दिया। कुछ कांग्रेस के नेतृत्व की गलतियों से और कुछ देश के राजनीतिक हालात की वजह से कांग्रेस के क्षत्रप स्वयंभू हो गए। पार्टी आलाकमान का उनके ऊपर बहुत कम नियंत्रण रह गया थायही वजह है कि आज कई क्षत्रप पार्टी की मजबूरी बन गए हैं, उनके बगैर कांग्रेस का काम नहीं चल सकता है। अगर कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व मजबूत होता तो फिर राज्यों में इन क्षत्रपों की सत्ता को चुनौती नहीं होती, पर चूंकि केंद्रीय नेतृत्व बहुत कमजोर है और सत्ता दिलाने की चमत्कारिक शक्ति का क्रमशः ह्वास होता जा रहा है इसलिए प्रदेशों में दूसरे क्षत्रप सिर उठाने लगे हैं और केंद्रीय नेतृत्व के चुने क्षत्रपों को चुनौती देने लगे हैं। यही वजह है कि आज कांग्रेस पार्टी हर राज्य में कम से कम दो क्षत्रपों का आपसी टकराव देख रही है। कहां तो कांग्रेस को भाजपा से लड़ना था, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना था और कहां पार्टी के नेता आपस में ही लड़ रहे हैं। देश की सबसे बड़ी पार्टी के इतिहास में पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व कभी भी इतना कमजोर नहीं रहा होगा कि उसके साफ निर्देश के बावजूद उसके चुने हुए क्षत्रपों को विरोध झेलना पड़े।