मन की जीत
गौतम बुद्ध ने उपदेश देते हुए कहा-देश में अकाल पड़ा है। लोग अन्न, वस्त्र के लिए तरस रहे हैं। उनकी सहायता करना हर मनुष्य का धर्म है। आप लोगों के शरीर पर जो वस्त्र हैं उन्हें दान में दें। यह सुन कुछ श्रोता उठकर चले गए। कुछ आपस में कहने लगे- यदि हम इन्हें दे देंगे तो हम क्या पहनेंगे। उपदेश समाप्त हुआ, सभी श्रोता चले गएपर निरंजन बैठा रहा। वह सोचने लगा- मेरे शरीर पर एक ही वस्त्र है। अगर मैं अपने वस्त्र दे दूंगा तो मुझे नग्न होना पड़ेगा। फिर उसने सोचा- मनुष्य बिना वस्त्र के पैदा होता है और बिना वस्त्र के ही चला जाता है। न जाने कितने साधु सन्यासी बिना वस्त्र के रहते है। निरंजन ने अपनी धोती उताकर बुद्ध को दे दी। बुद्ध ने उसे आशीर्वाद दिया। निरंजन प्रसन्न हो घर की ओर चल पड़ा । वह खुशी से की ओर चल पड़ा । वह खुशी से चिल्लाकर कह रहा था- मैंने अपने आधे मन को जीत लिया। तभी दूसरी ओर से महाराज प्रसेनजित चले आ रहे थे। निरंजन की बात सुन उन्होंने उसे पास बुलाया और पूछा- तुमने आधे मन को भी जीत लिया, इसका क्या अर्थ हैनिरंजन ने उत्तर दिया- महाराज, भगवान बुद्ध दुखियों के लिए वस्त्र दान में मांग रहे थे। यह सुनकर मेरे एक मन ने कहाशरीर पर पड़ी एकमात्र धोती दान में दे दो, पर दूसरे मन ने कहा, यदि यह भी दे दोगे तो पहनोगे क्या? आखिर दान देने वाले की विजय हुई। मैंने धोती दान में दे दी। अब मुझे गरीबों की सेवा के सिवा कुछ नहीं चाहिए। प्रसेनजित ने अपना राजकीय परिधान उतारकर निरंजन को प्रदान कर दियानिरंजन ने वह भी बुद्ध के चरणों में डाल दिया बुद्ध ने निरंजन को हृदय से लगाते हुए कहा- जो दूसरों के लिए अपना सब कुछ देता है उसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता